एमएसपी बढ़ोत्तरी एक अभूतपूर्व फैसला, परंतु....

एमएसपी बढ़ोत्तरी एक अभूतपूर्व फैसला, परंतु....


मनोहर मनोज


मोदी सरकार ने कु छ दिनों पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली यानी एमएसपी के दायरे में आने वाले कृषि उत्पादों के मूल्यों में भारी बढ़ोत्तरी की घोषणा की थी। यह एक अभूतपूर्व फ ैसला था जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ। यानी भारत में खेती का पेशा जो अबतक महज एक निर्वाह पेशे के तौर पर घाटे का व्यवसाय बने रहने के लिये अभिशप्त था, इस फैसले के बाद इसके एक आंशिक लाभकारी पेशे में परिणत होने की संभावना जरूर जग गयी। परंतु सावधान, यह फैसला अभी सैद्धांतिक रूप में ही ऐतिहासिक है, जमीन पर इसका स्वरूप क्या बनेगा, अभी तो यह देखा जाएगा। इस सोच के पीछे की वजहें कई हैं। सबसे पहले सरकार की तरफ से यह कहा गया कि यह बढोत्तरी उस फसल की कुल लागत पर पचास फीसदी मुनाफा जोडक़र निर्धारित की गई है। सरकार का यह कथन पूरी तरह से गलत है क्योंकि खेती की वास्तविक लागत के हिसाब से इसके उत्पादों की मूल्य अदायगी कर पाना असंभव है खासकर खाद्यान्न फसलों के मामलों में। परंतु मोदी सरकार ने जिन खाद्यान्न, दलहन और तिलहन फसलों के लिये यह बढोत्तरी घोषित की है, यदि वह वास्तव में क्रियान्वन का रूप ले लेती है तो यकीन मानिये यह स्थिति भी पहले की तुलना में किसानों को एक बड़ी राहत देगी। परंतु इस मार्ग के समक्ष एक बड़ा प्रश्र चिन्ह अटका हुआ है। यदि इसे हटाने में मोदी सरकार सफल हो गई तो फिर वह इस लक्ष्य प्राप्ति के समक्ष खड़े प्रश्र चिन्ह के बदले यहां विस्मयवाचक चिन्ह लगाने की हकदार बन जाएगी। पर इन दोनो चिन्हों के बीच का जो फासला है वही तो हमारा सबसे बड़ा सवाल है और वह देश के सिस्टम से जुड़ा है। जैसा हम जानते हैं कि अधिकतर कृषि जनित उत्पादों की कीमते सीजन में ओवर सप्लाई की वजह से काफी गिर जाती हैं।  एमएसपी की असल परिकल्पना ये है कि इसके निर्धारण के जरिये देश के किसानों द्वारा पैदा किये जाने वाले उत्पादों का मूल्य इसके सीजन में निर्धारित एमएसपी मूल्य से कम न होने पायें, भले इससे ज्यादा हो। ऐसी स्थितियां उत्पन्न करने के लिए सरकार की एजेंसिया सीजन में इन उत्पादों की खरीद करती हैं जिससे खुले बाजार में कीमतों के एमएसपी से ज्यादा बढऩे की संभावना बनती है जो किसानों के लिए एक आदर्श स्थिति होती है। पर क्या ऐसा संभव हो पाता है ?


देखा जाए तो एमएसपी की समूची प्रणाली को लेकर एक नहीं कई सवाल हैं जो आज से नहीं अरसे से चले आ रहे हैं। सबसे पहला कि पिछले सत्तर साल में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बेहद कम रखा गया और उसमे सालाना तौर पर मामूली बढोत्तरी की सिर्फ रस्म अदायगी होती रही। इस हिसाब से मोदी सरकार की बढा़ेत्तरी लोगों में निश्चित रूप से एक खुशनुमा अहसास दे गई। परंतु सवाल ये भी है कि मोदी सरकार भी यदि इस अभूतपूर्व फैसले का अपने आप पर सचमुच एक ईमानदार टैग लगाना चाहती थी तो फिर उसने यह टैग अपने कार्यकाल के पहले साल में ही क्यों नहीं लगाया। अब दूसरा सवाल कि क्या भारत सरकार क ी एफसीआई का देश के सभी दूरदराज इलाकों में अनाज क्रय का नेटवर्क है? क्या इन सभी क्रय केन्दों पर किसानों से उनके उत्पादों का त्वरित क्रय कर उसकी त्वरित मूल्य अदायगी की जाती है। इन सवालों के उत्तरों की हकीकत ये है कि एफसीआई का क्रय नेटवर्क देशव्यापी रूप में उपलब्ध नहीं है। पंजाब हरियाणा जैसे राज्यों में जहां के हर इलाके अनाज मंडी के नेटवर्क से जुड़े हैं देश के अधिकतर हिस्से में प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों यानी पैक्स के माध्यम से, कहीं बाजार समिति तो  कहीं गैर पंजीकृ त अनाज मंडियों के माध्यम से किसानों के उत्पादों की महज खानापूर्ति के तौर पर ही खरीद की जाती है। इनमे पैक्स द्वारा अनाज खरीद में प्रति क्विंटल भारी कमीशन लिया जाता है, दाम का भुगतान त्वरित नहीं किया जाता है। फिर अब सवाल है कि इन परिस्थितियों में इस एमएसपी के क्या मायने हैं। इन वजहों से फसल सीजन में खुले बाजार में एमएसपी से कम मूल्य पर कृषि उत्पाद धड़ल्ले से बिकते दिखायी देेते हैं। जिन किसान के घर में खेती के अलावा आमदनी के अन्य श्रोत उपलब्ध हैं, वे तो अपने उत्पादों का सीजन में आसानी से भंडारण कर इनकी कीमतों की बढ़ोत्तरी का इंतजार करते हैं। परंतु वे किसान जिनके पास ऐसा नहीं हैं, वे मजबूर होकर बाजार में अपने उत्पाद औने पौने दाम में बेचते हैं। ऐसी सूरत में तो एमएसपी व्यवस्था का मकसद ही बेमानी हो जाता है। ऐसे में मोदी सरकार एमएसपी बढ़ोत्तरी को अपने अभूतपूर्व फैसले में वास्तव में शूमार करना चाहती है तो इसे पहले तो कृषि उत्पादों की एमएसपी कीमत से कम मूल्य पर बाजार में खरीद को गैर कानूनी घोषित कर इसके जिम्मेदार लोगों के लिए भारी दंड का प्रावधान करना चाहिए ।


एमएसपी को लेकर एक सवाल ये है कि इसके दायरे में कहने के लिए तो करीब दो दर्जन कृषि उत्पाद शामिल हैं पर हकीकत में सरकारे एमएसपी के तहत केवल गेहूं और चावल जैसे अनाजों का ही क्रय करती हैं। हां जब देश में दालों की किल्लत से इसकी कीमतों में आग लगी तब सरकार ने इसके एमएसपी मूल्यों में भारी बढोत्तरी कर पहली बार इसकी व्यापक खरीददारी भी की। सवाल ये है कि खाद्यान्नों के अलावा भी तो अनेकानेक कृषि उत्पाद हैं जिनकी एमएसपी सरकारें तो तय कर देती हैं, पर सीजन में इनकी खरीददारी का न तो क्रय नेटवर्क होता है और ना हीं इसके भंडारण का प्रबंधन। फिर इन उत्पादों के एमएसपी घोषित करने के क्या मायने जो बाजार में लागू ही नहीं होता। तीसरा सब्जियों और फलों के मामले में तो इस देश में एमएसपी का कोई मैकानिज्म हीं नहीं चलता, जहां सीजन में कीमते जमीन को छूती हैं और आफ सीजन में इनकी कीमते आसमान को छूती हैं। सीजन में इन फसलों का उत्पादक यानी किसान मारा जाता है और आफ सीजन में इनका उपभोक्ता मारा जाता हैं और बीच में इनके कारोबारी मालामाल होते हैं। सबको मालूम है कि आलू, प्याज और टमाटर की कीमतें सीजन में एक रुपये किलो तथा आफ सीजन में पचास से सौ रुपये प्रति किलों तक जाती हैं। इन उत्पादों की क्रय एजेंसियां जिनमे केन्द्रीय स्तर पर नाफेड तथा प्रांतीय स्तर पर सहकारी समितियां तथा मंडी विपणन परिषद यदि इनकी एमएसपी प्रणाली को क्रियान्वित नहीं कर पाती हंै तो फिर किसानों के लिए इनकी खेती कैसे लाभकारी होगी। सेब बगानों में पांच रुपये किलों के भाव से किसानों से खरीदे जाते हैं और मार्केट पहुंचते सौ रुपये प्रति किलो हो जाते हैं।  हां गन्ना, कपास और डेयरी उत्पादों के मामले में किसानों को मिलने वाली कीमतें लाभकारी जरूर हैं जिनका श्रेय इन उत्पादों के लिए गठित संस्थागत संरचनाओं को जाता हैं। मसलन गन्ने को चीनी उद्योग से, दूध को सहकारी डेयरी संस्थाओं से जो कीमतें दी जाती हैं, वे बेहतर हैं। परंतु गन्ने के साथ जो समस्या अरसे से चली आ रही हैं वह है इसका समय पर मूल्य भुगतान नहीं होना। यदि मोदी सरकार सचमुच अपने फैसले को अभूतपूर्व बनाना चाहती है तो उसे हर नकदी फसल पर एक सप्ताह के भीतर कीमत अदायगी को भी कानूनी जामा पहनाना होगा और इस अवधि में भुगतान नहीं होने पर ब्याज का प्रावधान रखना होगा।


अंत में सरकार को इस मसले से जुड़े दो और अहम फैसले जरूर करने होगें पहला यह कि देश में सभी तरह के कृषि उत्पादों के भंडारण की बुनियादी संरचना का व्यापक जाल बिछाये जिसे सभी कृषि उत्पादों की एमएसपी प्रणाली का समुचित क्रियान्वन संभव हो और दूसरा कृषि जनित सभी उत्पादों की न्यूनतम कीमत के साथ इसकी अधिकतम कीमतें भी तय की जाएंं। न्यूनतम कीमतें उत्पादकों को पेशागत सुरक्षा देंगी तो अधिकतम कीमत उपभोक्ताओं को मूल्य सुरक्षा देंगी। तीसरा मोदी सरकार किसानों की आमदनी में सचमुच दोगुना इजाफा करना चाहती हैं तो कृषि उत्पादों को बाजार के जरिये स्वंयमेव बेहतर मूल्य मिले इसके अनुकूल उसे सारी परिस्थितियां निर्मित करनी होंगी। इसके लिए खाद्य सुरक्षा नीति में बदलाव लाने की जरूरत हैं वह नीति जो करीब डेढ लाख करोड़ की सब्सिडी पोषित तथा भयानक भ्रष्टाचार से ग्रसित है। इसके बदले हमे जगह जगह जरूरतमंदों के लिए तैयार भोजन की व्यवस्था तथा सस्ते अनाज के बजाए नकद खाद्य भत्ते की प्रणाली की शुरूआत करनी चाहिए। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जो किसानों को उनके पेशे के लिए सचमुच एक बेहतर बाजार सुरक्षा प्रदान करेगी।