राजसत्ता बनाम अध्यात्म सत्ता

राजसत्ता बनाम अध्यात्म सत्ता 


भारतीय समाज सदा से कैसे व्यक्ति पूजा, मठ श्रद्धा और मठाधीशो की अंधभक्ति से तल्लीन रहा है, इसके अनेकानेक मिसालों से हमारा इतिहास भरा हुआ है साथ ही हमारा वर्तमान भी इससे कम आप्लावित नहीं है। सबसे पहले तो हमें यह जान लेना होगा की न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया धर्म सत्ता के अधीन अपने अतीत में संचालित होती रही है। वह धर्म सत्ता जिसके निरूपण का मूल श्रोत एक सर्वकालीन, सर्वशक्तिमान और सार्वभौम रहस्यमयी ईश्वरीय सत्ता रही है। इसी विश्वास में दुनिया में कई धर्म संस्थापित हुए, पनपे, संगठित हुए और इनका विस्तार हुआ । यह अलग बात है की दुनिया का सबसे प्राचीन पंथ जिसे तदन्तर हिन्दू का नाम दिया गया, वह मूलतः ईश्वरीय सत्ता और सांसारिक जीवन के दार्शनिक विवेचन और इससे जुड़े कर्मकांडो को बिना किसी विस्तृत संगठन के क्रियान्वित कर रहा था। इसे कई लोगो ने सनातन धर्म का नाम दिया। इसी के समानांतर भारत में बौद्ध , रोम और यूरोप में ईसाई तथा अरब तथा तुर्की में इस्लाम जैसे धर्मो का अपने एक संगठित स्वरुप के साथ पदार्पण हुआ। इन सभी संगठित धर्मो की समाजिक सत्ता राजसत्ता पर भारी थी। राजसत्ता इनहीं के साये में, इनकी अधीनता में और इनके निर्देश में ही अपना अस्तित्व देख सकती थीं। ये धार्मिक संगठन आजकल के राजनीतिक दलों की भांति थे जिन् पर आध्यात्मिकता का एक कलेवर लगा था जिसके सामने क्या राजा , क्या प्रजा , क्या समाज सभी नतमस्तक थे और इन्होने इसे आत्मसात कर लिया था। 
हिन्दू धर्म संगठित नहीं था, पर इसके बावजूद इसके बहुविध स्वरूपों का राजसत्ता पर एक बड़ा आभामंडल था। यह कार्य असंगठित हिन्दू पंथ के धार्मिक दर्शन और विचारधारा के मातहत पनपे विभिन्न आध्यात्मिक मार्गो, मठो, पीठो , संगतों, गुरुओं ,महंतो , साधुओं , अखाड़ों , के जरिये प्रतिपादित हो रहा था। गौरतलब है की भारत में किसी एक संगठित धर्म के बजाये धार्मिक दर्शन के अनेकानेक मार्ग स्थापित हुए। भारत न केवल दुनिया में पनपे कई अन्य धर्मो के लिए भी नयी प्रयोगशाला और प्रयोगस्थल बना। 
कुल मिलकर समूची दुनिया में इनहीं तरीको से हमारा समाज और राजसत्ता का संचालन धर्म के जरिये हुआ। 
सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिटेन की ग्लोरियस क्रांति और अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस की राज्यक्रांति ने लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य की परिकल्पना का अवतरण हुआ, जो समूचे दुनिया में फैला।, इसके बाद से धरम सत्ता और राजसत्ता के बीच एक गहरी दिवार खींच गयी। मतलब किसी राज्य की सम्प्रुभता उसके राजा या प्रशासक से जानी जाएगी ना की धर्म सत्ता के जरिये। किसी भी राज्य के धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना का आशय इस बात से भी था की कोई धर्म सत्ता किसी राजसत्ता के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगी। पर कालांतर में देखा गया की राजसत्ता चाहे वह लोकतंत्र के अधीन की हो या अधिनायक तंत्र के अधीन की ,उनका भी सामाजिक दायरा अध्यात्म की सत्ता के तौर तरीके से पनपा। भारत में अध्यात्म की सत्ता के अनेकरूप जो विराजमान थे, वे राज निरपेक्ष होते हुए भी अपनी सामाजिक प्रभुता बनाये हुए थे। सैकड़ो मठ और पीठ चाहे जिस संगठित धर्म और पंथ के हो , अपने अनुयाइयों और संस्था की गतिविधियो को चलायमान बनाये हुए थे। दूसरी और राजसत्ता भी जनतंत्र के तहत विभिन्न दल और इनके प्रतिपादको के माध्यम से अपनी सत्ता का प्रतिपादन कर रहे थे। यानि अध्यात्म का मार्ग अपने अनुयायिओं के जरिये और जनतंत्र का मार्ग अपने जनबल के जरिये दर्शाया गया और ये दोनों सामाजिक ताकत के केंद्र बने] जो पहले केवल एक केंद्र हुआ करता था। 
ऐसे में अध्यात्म के मठ के सामानांतर जनतंत्र के भी मठ बने। जब दोनों जगह एक बार मठ बन गए तब इनके मठाधीश अनैतिकता, दुराचारिता , अहंकारिता , दौलतमंदिता जैसी तमाम सांसारिकता के केंद्र बनने लगे । उन पर किसी कानून, लोकलाज , सिद्धांत और आदर्शो का कोई बंधन नहीं था जो इन्हे सन्मार्ग पर ले जाये। इन्हे अपने पास के लाखो जन समर्थको का अहंकार था। 
भारत आज अध्यात्म का भी बड़ा बाजार है तो दूसरी तरफ जनतांत्रिक राजनीती एक बड़ा कारोबार। राम रहीम क्या यह नहीं जानता था की वह दौलत, ऐयाशी , रंगमहल शीशमहल , सम्मान , सम्मोहन के ढांचे पर अध्यात्म की जो वह शहंशाही कर रहा है, वह घोर अनैतिकता पर आश्रित थी। यह जानते हुए उसे इस बात का डर नहीं था क्योंकि भक्तो की लाखो की तादात उसके पीछे थी, जो भारत में अंधभक्तो से तैयार हुई थी। दूसरी तरफ लालू यादव जिनके यहाँ 150 करोड़ की संपत्ति अटैच की गयी है, क्या यह उन्हें यह अहसास नहीं था की यह संपत्ति सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक कारोबार से प्राप्त हुई जिस विचारधारा के आधार पर उनके पीछे लाखो समर्थक खड़े थे। ऐसे कई अंधभक्त हमारे कई राजनितिक मठो के पास भी है , जो इनके उन्मादी बयानों , पहचान की कट्टर राजनीती और लोकलुभावन नारो के जरिये बनती रही है। 
वैसे लालू तो पुराने भ्रष्टाचारी है, पर उनकी उनकी यह पोल कोई सामान्य तरीके से नहीं खोली गयी है बल्कि केंद्र की सत्तासीन एक राजनीतिक अधिनायक मठ ने राजनीतिक बदले की भावना के तहत इसे दर्शाया है। यह भी सच है इनके जैसे अभी और कई राजनितिक कारोबारी है। पर कुल मिलकर बात यही आती है हमारी जनता हमारे आध्यात्मिक और राजनीतिक मठो की अंधभक्त है ही क्यों? यही तो समस्या की जड़ है। यही तो आदर्शवाद के लोप का कारण भी। जब हमारी जनता गुणवत्ता सापेक्ष और विभिन्न राजनीतिक और आध्यात्मिक मठों के कार्य प्रदर्शन की निरंतरता के साथ खड़ी होगी, तभी अध्यात्म और राजनीतीक भ्रष्टाचार का निदान होगा।