हमने यह जीएसटी तो नहीं सोचा था

 


हमने यह जीएसटी तो नहीं सोचा था
मनोहर मनोज
करीब एक दशक पूर्व जब देश में वस्तु व सेवाकर यानी जीएसटी की पहली बार परिकल्पना आई, तब हमे इस बात का एक स्वप्रिल अहसास होता था कि इस बहाने देश में एक महान कर क्रांति का आगाज होगा। जिसमे देश में किसी भी अप्रत्यक्ष कर की चोरी, करों का दोहराव और कर अधिकारियों के भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाएगा और सबसे अव्वल समूची कर प्रणाली बेहद सरल होगी क्योंकि इनमें सभी अप्रत्यक्ष कर यानी केन्द्र के उत्पाद व सीमा शुल्क तथा सेवा कर और राज्यों के वैट व आबकारी कर सभी एक साथ व एक मुश्त करोरोपित होंगे। करीब एक दशक बीत गए, इस प्रणाली के आगमन की जरूरी संवैधानिक प्रक्रिया हासिल करने के लिए राजनीतिक आम सहमति नहीं हो पा रही थी। अब सारी प्रक्रिया पूरी होने के उपरांत पिछले एक जुलाई 2017 से अब हमे यह कौन सा जीएसटी तंत्र दिखायी दे रहा है। सबसे पहले तो जीएसटी की नयी प्रणाली की समूची तैयारियां ही बेहद दुश्वारी भरी थी। लोगों को कह दिया गया कि आप अपना पंजीयन कराओ, फिर आप इसका रिटर्न भरो और यदि यह नहीं करोगे तो आपका बिजनेस का लेन देन बंद हो जाएगा और आप पर भारी जूर्माना लगेगा।
कहना ना होगा भारत सरकार के दो बड़े मूहिम मसलन पैन यानी स्थायी खाता संख्या और आधार कार्ड का पंजीयन देशव्यापी रूप से तभी बढ़ पाया जब सरकार ने ना तो लोगों से और ना ही स्वयं से इसका पंजीयन करवाया बल्कि इसके लिए इन्होंने एजेंसियां बना दी जिससे बेहद आसानी से देश भर में पैन और आधार कार्ड का निरंतर विस्तार हुआ। पर जीएसटी को लेकर सरकार ने तो एक तुगलकी फरमान दे दिया कि खुद आनलाइन पंजीयन करो और बिजनेस चले या ना चले उसका रिटर्न भरो और यदि नहीं भरे तो उसका बेशुमार हर्जाना भरो। क्या जीएसटी की यही सरल कर व्यवस्था है। यह व्यवस्था ना तो व्यावसायिक इमानदारी की और ना ही व्यावसायिक लोकतंत्र की भावना का परिचायक लगती है। पहले तो यह कहा जा रहा था कि देश में केन्द्र और राज्य कई तरह के परोक्ष कर लगाते हैं, जिससे करों का दोहराव होता है, चीजें महंगी होती हैं और कर वसूली में लीकेज होता है। पर अब कौन सा तीर मार लिया गया। आज भी देश में सभी उत्पादों व सेवाओं पर उसके मूल स्रोत पर कहां करारोपण हो रहा है। वह तो दुकानदारों को करारोपित करने के लिए कह दिया गया है और कई दूकानदारों को अपने कारोबार की मात्रा के हिसाब से गैर पंजीकृत होनेे की छूट दे दी गई है। क्या इससे दोनो तरह के कारोबारियों के बीच कर व्यवस्था की एक हाचपांच स्थिति नहीं उत्पन्न हो रही है। यह काम तो वैट के जरिये भी हो रहा था जिसमें यह कहा जा रहा था कि सारे शांपिग बिल कंप्यूटराइज्ड होंगे तो करचोरी और फिजूल के करारोपण रुक जाएंगे। फिर जीएसटी के समक्ष भी तो वही सवाल है तो फिर अंतर क्या आया। कहने को तो जीएसटी है पर बिल में अभी भी केन्द्रीय व प्रांतीय जीएसटी लिखा जा रहा है, इसका मतलब यह है कि केन्द्र सरकार ने राज्यों क े सेवा कर को तो पहले ही हड़पा हुआ था और अब जीएसटी के बहाने उसने राज्यों के वस्तुकर यानी वैट को भी हड़प लिया। सबसे बड़ी विडंबना ये है कि इस नयी जीएसटी रिजीम में भी बिना बिल के वैसे ही व्यापार हो रहे हैं जैसे पहले होते थे चाहे वह छोटे दूकानों से हों या बड़े दूकानों से ।
कहना ना होगा कि प्रत्यक्ष करों के मामलों में केन्द्र सरकार किसी भी तरह के भुगतान पर दो प्रतिशत का टीडीएस काटती है जिसका निपटारा आयकर रिटर्न भरने के वक्त किया जाता है। यह एक बेहतरीन व्यवस्था है जिसमे यह कार्य करदाता और करवसूलकर्ता दोनों को अनिवार्य रूप से करना होता है तो क्या ऐसी व्यवस्था जीएसटी के तहत भी नहीं बनायी जा सकती थी जिसमे वस्तु या सेवा के उसके उत्पादन स्रोत पर ही उसका करारोपण कर लिया जाए और सरकार को वहीं राजस्व प्राप्त हो जाए और फिर कर दोहराव से लेकर करारोपण और कर अदायगी के लिए जीएसी पंजीयन और रिटर्न का लंबा तामझाम न करना पड़े। अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह काहे की सरल कर व्यवस्था है। यदि जीएसटी एक उन्नत व्यवस्था है तो फिर सरकार को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के 48 फीसदी जीएसटी पंजीयनकर्ता ने अभी तक अपना रिटर्न क्यों नहीं भरा है। क्या सरकार को इनके कर भुगतान के बजाए इनसे जूर्माना वसूलनें पर ही ज्यादा नजर लगी हुई है। अगर सरकार जीएसटी की इस व्यवस्था को लोगों पर बलात थोपना भी चाहती है तो उनके कर अधिकारी क्या कर रहे हैं, वह क्यों नहीं सभी जीएसटी पंजीयन के पात्र व्यवसायियों व कारोबारियों को ढूंढकर उनका पंजीयन करा रहे हैं, वे क्यों नहीं उन्हें रिटर्न भरने में उनकी मदद कर रहे हैं। सरकार का जीएसटी पोर्टल अभी तक क्यों नहीं यूजर फ्रेंडली बन पाया है। वह क्यों नहीं टीडीएस प्रणाली की ही तरह वस्तु व सेवा के उत्पादन के स्रोत पर करारोपण की प्रणाली शुरू करती है। सबको मालूम है कि देश में अधिकतर बिक्रीजनित उत्पादों पर लेबल नहीं लगे होते है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। बार बार जीएसटी की वेबसाइट हेंग पड़ी रहती है। राजधानी दिल्ली में व्यवसायियों को जब इतनी दुश्वारी झेलनी पड़ती है तो देश के बाकी जगहों की स्थिति क्या होती होगी?
अब बात की जाए इस जीएसटी व्यवस्था में सरकारों द्वारा अपनायी गई सुविधापरस्तता की नीति पर। एक तरफ कहा गया कि जीएसटी व्यवस्था के तहत करों की चोरी रुकने से सरकार के कर राजस्व में भारी बढोत्तरी होगी तो दूसरी तरफ सरकार ने उपभोक्ताओं के आंखों में धूल झोंककर अपनी मोटी कमाई किये जाने के रास्ते जीएसटी रूट से अलग कर दिये और केन्द्र व राज्य दोनों ने अपने अपने मलाइदार कर आमदनी के तरीके चलायमान रखे। इसका मतलब है कि सरकार जीएसटी व्यवस्था के जरिये पर्याप्त राजस्व नहीं कमा पाने के प्रति आश्वस्त नहीं थी तभी उसने इस तरह से अधूरे सुधारों को अंजाम दिया । इसी का नतीजा है कि सभी पेट्रोलियम उत्पादों पर पुरानी कर प्रणाली लागू कर उपभोक्ताओं को इनके दामों से जीएसटी से राहत मिलने की आकांक्षाओं पर कुठाराघात किया गया। राज्यों ने अपने आबकारी कर प्रणाली को पूर्ववत चालू रखा है। गाडिय़ों के पंजीयन पर विशेष कर लगाया गया। जमीन व मकान की रजिस्ट्री पर पुरानी कर व्यवस्था कायम है। तो फिर जनता की दृष्टि से भी जीएसटी से कौन सा बड़ा राहत मिला। फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए विन विन स्टेप क्यों माने। हम इसे क्यों नहीं लूज लूज स्टेप माने। क्योंकि विगत में जब कच्चे तेल की अंतराष्ट्र्रीय कीमतो में कमी आयी तो पेट्रोलियम पदार्थों में बाजार मूल्य व्यवस्था लागू होने के बावजूद मौजूदा मोदी सरकार ने इस गिरावट को जनता को पास ऑन होने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर अपने कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर और राज्यों ने अपने वैट बढाकर अपने खज़़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में संतुलन स्थापित किया। आज जब कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्र्रीय मूल्यों में बढ़ोत्तरी हो रही है तो सरकारें अपने पुराने बढ़ाये करों में कमी लाने को तैयार नहीं है। पिछले चार साल में केन्द्र ने अपने बढे उत्पाद व सीमा शुल्क से तथा राज्यों ने अपने वैट के जरिये एक-एक लाख करोड़ की अतिरिक्त कमाई की है। क्या ये अच्छे दिन हैं या बुरे दिन, आप ही तय करें।