बेरोजगारी का समाधान अकेल स्वरोजगार के बश की नहीं
 

 उत्तर प्रदेश में चंद  दिन पहले चपरासी के कुछ पद के लिये लाखों शिक्षित बेरोजगारों के आवेदन आए जिसमें सैकड़ों की संख्या में तो पीएचडी धारक थे। विगत में यहां सफाइकर्मी की नौकरी के लिये सैकड़ों पीएचडी धारकों ने भी आवेदन किया था । अभी रेलवे में अस्सी हजार पद के लिए करीब तीन करोड़ लोगो के आवेदन आये हैं। यह परिघटना इस बात को दर्शाती है कि भारत में बेरोजगारी खासकर शिक्षित बेरोजगारी की समस्या कितनी विकराल है।

 बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के साथ देश की उन मौलिक समस्याओं में शामिल रही है जिसको लेकर देश में व्यापक जनांदोलन होते रहे और करीब हर आम चुनावों का  यह मुख्य मुद्दा बनता रहा है। मोदी सरकार के खिलाफ अभी भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा अभी उस स्तर तक तो नहीं जा पाया है पर बेरोजगारी को लेकर जनमानस में अभी घोर रोष व्याप्त है। कहा जा रहा है इस सरकार ने देश में रोजगार के अवसरों में प्रर्याप्त वृद्धि करने को लेकर समुचित प्रयास नहीं किये। नवीनतम आर्थिक आंकड़े  इस बात की गवाही दे रहे हैं की देश में या तो रोजगार वृद्धि की दर स्थिर है या नकारात्मक है। पहले विमुद्रीकरण और उसके बाद जीएसटी ने अर्थव्यवस्था में एक ऐसी ठहराव की स्थिति ला दी जिससे हमारी विकास दर के साथ स्वाभाविक रूप से होने वाली रोजगार बढ़ोत्तरी बुरी तरह प्रभावित हुई। हम सबको मालूम है की किसी अर्थव्यवस्था की चलायमान अवस्था वहां रोजगार अवसरों को स्वयंमेव तरीके से पैदा करती है , जिसके लिए सरकारों के  किसी विशेष प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती। इसके साथ दूसरा सवाल यह है की यदि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो भी गयी तो सरकारें कम से कम अपने सभी विभागों व उपक्रमों में रिक्त पड़े तमाम पदों को  क्यों  नहीं भर रही हैं। अनुमान है की केंद्र और राज्य सरकारों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं और इस वजह से उनके अनेक योजनाओं के समन्वित क्रियान्यवन का काम  भी बाधित हो रहा है। 

अभी हकीकत ये है सरकारें चाहे केंद्र की हों या तमाम राज्यों की, सबका मूल मकसद लोगों को स्थायी नौकरी देने से परहेज करना है। भारत में सरकारी नौकरी की संस्कृति तो ये है की एक बार पा जाओ तो यह आजीवन सुरक्षित रहती है और श्रम संघ कानून के तहत सरकारों को जीवन पर्यन्त उसका वित्तीय भार ढोना पड़ता है। यही वजह है कि सरकारें अब अपनी जरूरत और रिक्तियों के बावजूद पक्की नौकरी देने से गुरेज करती है ,कभी भर्ती स्थगित कर तो कभी नियुक्ति की प्रक्रिया टालमटोल कर। 

देश में जब भी बेरोजगारी का सवाल आता है तो मोदी सरकार उस पर अपनी मुद्रा बैंक योजना का राग जरूर अलापती है। यह योजना उनके लिए बनायी गयी थी जो अपना छोटा मोटा काम धंधा शुरू करना चाहते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत करीब 5 करोड़ लोगो ने अपने विभिन्न तरह के कारोबार के लिए करीब 10 लाख करोड़ रुपये का लोन प्राप्त किया है। यह स्कीम बेशक अच्छी है, पर इसे देश की बेरोजगारी समस्या का एक मात्र निदान मान लेना भारी भूल होगी। हमें इस बात को समझना चाहिए की हमारे देश में बेरोजगारों के एक नहीं कई श्रेणियां हंै, जिनमेे अनपढ़ अकुशल दिहाड़ी मजदूरों की,अर्ध शिक्षित और अर्धकुशल कामगारों की, शिक्षित और कुशल कामगारों की और उच्च शिक्षित और पूर्ण कुशल कामगारों की अलग अलग बेरोजगार श्रेणी हैं। इन सभी श्रेणी की बेरोजगारी के समाधान के लिए हमें अलग अलग नीतियों, परिस्थितियों और योजनाओं की जरूरत है। मिसाल के तौर पर अकुशल अशिक्षित और दिहाड़ी देहाती कामगारों की रोजगार सुरक्षा के लिए यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना जरूर शुरू की। इसी तरह से मौजूदा सरकार की मुद्रा बैंक योजना अर्ध शिक्षित और अर्ध कुशल कामगारों को अपना कारोबार, उद्यम और सेवा व्यापार के लिए वित्तीय सहूलियत प्रदान करता है। अब सवाल है कि इन दोनो श्रेणी के अलावा देश के बाकी श्रेणी के बेरोजगारों का क्या होगा? इन सभी के लिये मोदी सरकार हर बार मुद्रा योजना का हवाला नहीं दे सकती। ठीक है कि देश में तकनीकी रूप से शिक्षित लोगो के स्वरोजगार ले लिए भी स्टार्टअप और डिजिटल योजना मौजूदा सरकार द्वारा लायी गई है। परन्तु इस योजना का दायरा देश की विशाल शिक्षित बेरोजगार आबादी की मात्रा के हिसाब से कुछ भी नहीं। हम जानते हैं की डिजिटल इंडिया योजना में रोजगार मिलने की ढ़ेर सारी संभावनाएं छिपी हैं जैसे कि देश में सूचना प्रौद्योगिकी और टेलीकॉम सेवाओं के विस्तार के जरिये रोजगार का आगमन संभव हुआ था। पर बेरोजगारी का  इससे अभी तात्कालिक समाधान  नहीं दिखता।

मोदी सरकार का यह रवैया कि बेरोजगारी का एक मात्र निदान स्वरोजगार ही है,  एक  लोकतान्त्रिक सरकार के लिये उचित नहीं। यही वजह है की इस सरकार के मंत्रियों का यह बयान आता है की नौकरी की भीख मांगने से अच्छा है चाय पकोड़े और पान की दूकान खोल लेना।  स्वरोजगार को प्रोत्साहित करना और लोगो में उद्यमशीलता की प्रवृत्ति पनपाना सही है पर आप सभी श्रेणी के बेरोजगारों को उद्यमी बना दें, यह संभव नहीं। कौन कौन बेरोजगार  उद्यमी बनेंगे और किस सीमा तक बनेंगे, इनकी भी अपनी सीमाएं हैं, वह भी भारत जैसे देश में जहाँ लोगों में उद्यमशीलता और जोखिम लेने की प्रवृति बेहद क्षीण है। दूसरा उद्यमियों की जरूरत के हिसाब से  बुनियादी सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में मौजूद नहीं हैं। गौरतलब है कि किसी भी  अर्थव्यवस्था में श्रमिक और उद्यमी का अनुपात 9०:1० से ज्यादा नहीं हो सकता। अत: सरकारों को चाहिए अर्थव्यस्था में जितना ज्यादा संभव हो सभी तरह के रोजगार सृजित करने का प्रयास करें। जहां जहां कामगारों की जरूरत है, वहां उनकी संविदा पर बहाली करें। यह कार्य सिर्फ केंद्र ही नहीं बल्कि सभी राज्यों तथा स्थानीय सरकारों को  एक अभियान के तहत चलाना चाहिऐ। हां हर नियुक्ति एवं भर्ती की उत्पादकता की पूरी ऑडिट जरूर होनी चाहिए, नहीं तो वह देश में सफ़ेद हाथी की संस्कृति पैदा करेगा और भविष्य में रोजगार की अतिरिक्त संभावनाओं पर वज्राघात करेगा। विडम्बना ये है की व्यापक भर्ती वाले ज्यादातर कदम सरकारों द्वारा सिर्फ चुनाव के वक्त शुरू किये जाते हैं जैसे कि रेलवे में अभी भर्तियां की जा रही हैं। सरकारी नौकरियों के देने के नाम पर लोगों से पैसे ऐंठने वाले गिरोह से सरकार में मौजूद भ्रष्ट तत्वों द्वारा साठ गांठ किया जाता है और सरकारी नौकरी मिलने के एवज में लोग लाखों की रिश्वत देने को भी तैयार होते हंै क्योंकि उन्हें मालूम है की सरकारी नौकरी मिलने के बाद उन्हें  रिश्वत से भी  ढ़ेर सारी कमाई होगी। 

प्राप्त जानकारी के मुताबिक अकेले केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में अभी करीब 8 लाख और विभिन्न राज्य सरकारों में करीब 50 लाख पद खाली हैं। गौर करने लायक बात यह है की जब बिहार सहित देश की कई राज्य सरकारों ने सर्व शिक्षा अभियान के लिये संविदा के तहत शिक्षक भर्ती करने का फैसला लिया तब एक साथ लाखो की संख्या में भर्तियां संभव हो गयी। 

कुल मिलाकर देश की इस बेहद अहम् समस्या पर सरकार को चौतरफा प्रयासों   की जरूरत है। श्रम मंत्रालय का नामकरण श्रम और रोजगार निर्माण मंत्रालय किया जाये। रोजगार सृजन को लेकर पुरे देश के हर सरकारी विभाग में मानव संसाधन की जरूरतों की ऑडिट की जाये जिससे रोजगार की संभावनाओं का सही आकलन हो सके और साथ ही स्थानीय सरकारों में फण्ड का स्थानान्तरण तीव्र कर वहां भी रोजगार सृजन की संभावनाओं को बढ़ाया जाये। 

 हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सरकारें ही किसी देश की सबसे बड़ी नियोक्ता होती है। इसके साथ ही सरकार निजी क्षेत्र को भी रोजगार सृजन हेतू तमाम तरह के राजकोषीय प्रोत्साहन और नीतिगत समर्थन दें तभी हम बेरोजगारी पर एक सतत और सर्वांगीण कार्य को अंजाम दे सकते हैं। कहना ना होगा हमारे देश का एक रोजगार परक अर्थव्यवस्था बनना हमारी सबसे बड़ी जरूरत है।